
तालीम बढ़ रही है अदब घट रहे हैं, मसला मालूम नहीं अल्फाज़ रट रहे हैं -अतुल मलिकराम (समाजसेवी)
तालीम बढ़ रही है अदब घट रहे हैं, मसला मालूम नहीं अल्फाज़ रट रहे हैं -अतुल मलिकराम (समाजसेवी)
तिल्फ़ (नन्हा शिशु) में बू आए क्या माँ बाप के अवतार की दूध तो डिब्बे का है, तालीम है सरकार की।उपरोक्त दोनों पंक्तियाँ वर्तमान समय की शिक्षा का विस्तार से वर्णन करती हैं, जिनका उपयोग प्रसिद्ध उर्दू कवि अकबर इलाहाबादी ने अपने उर्दू दोहे में किया है। इसका अर्थ यह है कि माता-पिता के संस्कार उनके बच्चों में नहीं दिखते, क्योंकि वे डिब्बे वाले दूध और सरकारी शिक्षा पर पले-बढ़े होते हैं।जिस बुनियादी या कौशल शिक्षा की मैं बात कर रहा हूँ, सौभाग्य से उस शिक्षा प्रक्रिया का आविष्कार करने की जरुरत नहीं है, आवश्यकता है तो सिर्फ इसकी पुनः खोज करने की। यह सभी धर्मों के संतों और उनकी शिक्षाओं का स्रोत है, जिसका आविष्कार पहले ही किया जा चुका है।आप दूसरे देशों की शिक्षा व्यवस्था भी देख सकते हैं, जैसे जापान में एक बच्चे को तैराक बनाने के लिए उसे ढ़ाई या तीन साल की उम्र से ही तैयार किया जाने लगता है, ताकि वह बचपन से ही सीखने की प्रक्रिया में कुशलता से हिस्सा लेने लगे। इसे हमारे पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए विकसित करने की सख्त जरुरत है। नई तालीम के माध्यम से हमें बच्चों और मनुष्य में स्वतंत्र सोच पैदा करना होगा।शिक्षा का उद्देश्य ऐसे कर्मचारी पैदा करना नहीं है, जो अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल करना ही न जानें। नई तालीम का उद्देश्य सिर्फ इतना होना चाहिए कि हम वास्तविक स्थितियों के माध्यम से प्रशिक्षित, आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से उपयोगी नागरिक बन सकें। और सबसे विशेष बात, इन नागरिकों के पास समाज और व्यक्ति दोनों के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक कौशल और क्षमताएँ हों। इसका एक उदाहरण हम आमिर खान की फिल्म 'थ्री इडियट्स' से लेकर देख सकते हैं, जिसका मूल उद्देश्य ही यह था कि शिक्षा को घोंटा या रटा नहीं, बल्कि जिया जाना चाहिए। फिल्मों के माध्यम से भी ऐसे विषयों पर हमेशा ही समाज को जागृत करने की कोशिश की गई है। लेकिन, अफसोस कि समाज बार-बार कर्मचारी बनने की दौड़ में ही बच्चों को धकेलता चला जाता है।मेरा व्यक्तिगत विचार है कि जिस प्रकार न्यायपालिका स्वतंत्र है और सरकार का उस पर कोई अधिकार नहीं है, उसी प्रकार शिक्षण संस्थान भी पूरी तरह स्वतंत्र होने चाहिए। यदि शिक्षा सरकार के हाथ में है, तो या तो वह कठोर नियमों पर आ जाएगी या फिर सरकार के रंग में ही रंग कर रह जाएगी। और फिर शिक्षकों का क्या है, सरकारी ठप्पे की मार तो उन पर पहले से ही लगी पड़ी है। वे भी सरकारी कर्मचारी बन कर ही रह जाते हैं। सरकार से उन्हें उचित तनख्वाह मिल ही रही है, फिर बदले में बेहतर शिक्षा प्रक्रिया जाए तेल लेने।यदि सरकार शिक्षा प्रक्रिया में उचित परिवर्तन करती भी है, तो इससे क्या हो जाएगा, जब सरकार में बैठे नेतागण ही उचित रूप से शिक्षित नहीं हैं, जो यह निर्धारित करेंगे कि यह सही है भी या गलत? कितने ही ज्ञानी व्यक्ति, जिनकी झोली में अनेक डिग्रीज़ हैं, वे ऐसे ही निहत्थे घूम रहे हैं। वे बेशक क्राँति लाने का हुनर रखते हैं, लेकिन न तो उनके पास मौके हैं और न ही रोजगार। आदर्श स्थिति तब कहलाएगी, जब शिक्षा संस्थाएँ जनता के बीच इन्हीं ज्ञानी लोगों के हाथों में हों और यदि सरकार चाहे, तो इन्हें कुछ वित्तीय सहायता मुहैया करा दे। इसी नई तालीम के साथ हम वर्ष 2030 तक गुणवत्ता शिक्षा के शिखर को प्राप्त कर सकते हैं।
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